ताउम्र कला को समर्पित रहे जयपुर घराने के 77 वर्षीय जगदीश ढौंड़ियाल को कल उनकी कला का सबसे बड़ा सम्मान मिल गया। संगीत नाटक अकादमी की ओर से अमृत पुरस्कार से सम्मानित किया गया। नई दिल्ली में आयोजित एक समारोह में उन्हें यह सम्मान उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने दिया। लोक कलाकारों के लिए उदास शहर देहरादून को लेकर कथक कलाकार जगदीश ढौंडियाल को लाखों शिकायतें हैं। 2015 से देहरादून में वह लगभग एकांत वास कर रहे हैं। लोककला और कलाकारों के लिए ढोल पीटने वाले सारे दावे उनकी व्यथा-कथा के आगे हवा हवाई साबित होते हैं।
20 अगस्त 1944 को जन्में जगदीश ढौंडियाल ने नई दिल्ली के गोल मार्केट में 1958 में रामलीला में लक्ष्मण का रोल करना शुरू किया था। तब वह आठवीं कक्षा में थे। वह 35 वर्ष तक लगातार रामलीला में लक्ष्मण का रोल करते रहे। इस दौरान वह संगीत नाटक प्रभार से जुड़े रहे। आकाशवाणी दिल्ली से भी उनकी गायिकी चलती रहीे। कथक में पारंगत और कला को समर्पित जगदीश ढौंडियाल ने जयशंकर प्रसाद की अमरकृति कामायनी के 2500 से भी अधिक शो पूरे देश-दुनिया में किये। उनके गुरु हजारी लाल जयपुर घराने के थे। गुरु-शिष्य परंपरा में उनकी अटूट आस्था है। उन्होंने 18 साल तक कथक सीखा। 26 जनवरी 1984 को उनके नृत्य निर्देशन में राजपथ पर गांव चलो, गांव चलो का गीत और संगीत गूंजा। 26 जनवरी 1994 में राजपथ पर उनके निर्देशन में 1500 स्कूली बच्चों ने ‘ऊचा हिमालय का मूड, नीला आसमां‘ गाया। उन्होंने कई कालजयी नाटकों में भी अभिनय किया।
कला साधना को प्रसव वेदना सा बताने वाले फनकार जगदीश ढौंडियाल चाहते हैं कि वह अपने जीवन के तमाम अनुभव और ज्ञान को उत्तराखंड की धरा में बांट दें। पत्नी की मृत्यु के बाद देहरादून में 2015 से निवास कर रहे हैं लेकिन यहां उनकी कला के कद्रदान नहीं है। किसी ने भी उनकी सुध नहीं ली। कोरोना काल में भुखमरी के से हालात हो गये थे। न संस्कृति विभाग किसी काम का निकला और न ही कला के नाम पर दुकान चला रही अन्य संस्थाएं हीं।
दून में एकांतवासी फनकार जगदीश ढौंडियाल का सच्चा दोस्त हारमोनियम है। हारमोनियम उनकी सांसों में बसा है। हारमोनियम पर उनकी उंगलियां थिरकती है और दिल के साज बज उठते हैं। कला के प्रति समर्पित इस महान साधक को संगीत नाटक अकादमी का अमृत पुरस्कार मिलने पर हार्दिक शुभकामनाएं और उनके स्वस्थ जीवन व दीर्घायु की कामना।